इसराइल के क़रीब आए इन इस्लामिक देशों में हलचल

हमास के हमले के बाद इसराइली की जवाबी सैन्य कार्रवाई में ग़ज़ा में हज़ारों लोगों की मौत हो चुकी है. इसराइल अब भी थमा नहीं है. इसराइली सैन्य कार्रवाई को लेकर अरब के उन देशों में काफ़ी ग़ुस्सा देखने को मिल रहा है, जिन्होंने इसराइल से संबंध सामान्य कर लिए थे या सामान्य करने पर विचार कर रहे थे. इन देशों में आम लोगों का दबाव बढ़ रहा है कि इसराइल से रिश्ते ख़त्म किए जाएं. कुछ देशों में लोग सड़कों पर उतर आए हैं और मांग कर रहे हैं कि इसराइल से राजनयिक संबंध ख़त्म किए जाएं.

इसराइल के ख़िलाफ़ कहां-कहां लोग सड़कों पर उतरे

मोरक्को के कई शहरों में हज़ारों लोग सड़कों पर उतरे हैं. ये लोग प्रदर्शन कर फ़लस्तीनियों का समर्थन कर रहे हैं.बहरीन एक देश है, जहां विरोध प्रदर्शन की अनुमति नहीं मिलती है. बहरीन में भी बीते महीने इसराइली दूतावास के बाहर सैकड़ों लोगों की भीड़ जुटी थी. तब दूतावास के बाहर पुलिस को तैनात करना पड़ा था. जॉर्डन में भी इसराइल के ख़िलाफ़ और ग़ज़ा के समर्थन में प्रदर्शन देखने को मिले थे. इन प्रदर्शनों में सैकड़ों लोग जुटे थे. क़तर में भी बड़ी संख्या में लोग सड़कों पर उतरे थे.

जॉर्डन ने इसराइल से अपने राजदूत को वापस बुला लिया और इसराइली सरकार को ग़ज़ा पर हमले बंद करने की नसीहत भी दी. इन अरब देशों में जिस तरह से इसराइल के ख़िलाफ़ प्रदर्शन देखने को मिल रहे हैं, उससे इन देशों की सरकारों के लिए असहज स्थिति पैदा हो गई है. बीते कुछ सालों में इन देशों ने इसराइल से सैन्य नज़दीकियां बढ़ाई थीं और आर्थिक समझौते भी किए थे.

 मिस्र में भी इसराइल विरोधी स्वर

मिस्र और इसराइल के बीच बीते एक दशक से संबंध हैं. मिस्र के शहरों और विश्वविद्यालयों में इसराइल के ख़िलाफ़ बीते दिनों विरोध प्रदर्शन देखने को मिले हैं. ट्यूनीशिया में एक संसदीय कमिटी ने क़ानून का एक मसौदा तैयार किया, जिसके तहत इसराइल से संबंधों को सामान्य करने को अपराध माना जाएगा.

मोरक्को और बहरीन में लोगों के ग़ुस्से से इतर मानवाधिकार कार्यकर्ता ये मांग कर रहे हैं कि इसराइल संग जो समझौते किए गए थे, वो ख़त्म किए जाएं.इस मांग के कारण जनता और सरकार के मतभेद सामने आ रहे हैं.

‘अब्राहम एकॉर्ड’

साल 2020 में अमेरिका की मध्यस्थता में संयुक्त अरब अमीरात और बहरीन ने इसराइल के साथ ऐतिहासिक समझौता किया था जिसे ‘अब्राहम एकॉर्ड’ कहा जाता है.इसके तहत यूएई और बहरीन ने इसराइल के साथ राजनयिक रिश्ता कायम कर लिया था.अमेरिका की मध्यस्थता में शुरू किए गए ‘अब्राहम एकॉर्ड’ का मक़सद था कि अरब दुनिया में इसराइल की स्वीकार्यता बढ़ें.

इस समझौते के तहत बहरीन, मोरक्को, सूडान और संयुक्त अरब अमीरात जैसे देशों का इसराइल से व्यापारिक रिश्ते और सैन्य सहयोग का रास्ता खुला था. इन देशों के शासकों, अमेरिका और इसराइली अधिकारियों के बीच ”नया मध्य पूर्व” बनाने और संबंधों को बेहतर करने की दिशा में काम चल ही रहा है.इस समझौते को मोरक्को की बड़ी राजनयिक जीत बताया गया क्योंकि इस समझौते के कारण इसराइल और अमेरिका ने विवादित पश्चिमी सहारा पर मोरक्को की स्वायत्तता को स्वीकार किया था.

इस समझौते के कारण ही अमेरिका को सूडान को भी सरकार प्रायोजित आतंकवाद फैलाने वाले देशों की लिस्ट से बाहर करना पड़ा था. लोकतंत्र समर्थक आंदोलन और महंगाई के ख़िलाफ़ जूझते सूडान के सैन्य शासन को इससे राहत मिली थी.हालांकि सूडान और संयुक्त अरब अमीरात में अभी तक इसराइल-हमास संघर्ष को लेकर बड़े प्रदर्शन देखने को नहीं मिले हैं.

सऊदी अरब-इसराइल की क़रीबियां ठंडे बस्ते में गईं

इसराइल जिस तरह से ग़ज़ा पर हमला कर रहा है, उसे लेकर सऊदी अरब ने भी नाराज़गी ज़ाहिर की थी. काउंसिल ऑन फॉरेन रिलेशंस में मिडिल ईस्ट एंड अफ्रीकन स्टडीज़ के सीनियर फेलो स्टीवन कुक ने समाचार एजेंसी एपी से कहा, ”सऊदी अरब और इसराइल के बीच जो समझौता होना था, अब उसके होने की संभावना कम ही नज़र आ रही है.”स्टीवन कुक कहते हैं, ”अरब देशों से इसराइल के संबंधों को सामान्य करने की जो कोशिशें थीं, अब उनकी रफ्तार कम हो जाएगी या कम से कम कुछ वक़्त के लिए ये रुक जाएंगी.”

इसराइल से संबंधों को सामान्य करने का विरोध करने वालों का कहना है कि प्रदर्शनों से साफ़ हो गया है कि अब्राहम एकॉर्ड से सरकारों की भले ही जीत हो गई हो मगर आम लोगों की राय नहीं बदली है. फ़लस्तीन मुद्दे का समर्थन करने वाली मोरक्को की इस्लामिक संस्था अल-अदल-वल-इहसान के राष्ट्रीय सचिव अबुचिते मुसैफ ने कहा, ”हमास आतंकवादी समूह नहीं है. ये उपनिवेशीकरण का विरोध है. कल्पना कीजिए कोई आपके घर में घुस आए, आप कैसा बर्ताव करेंगे? मुस्कुराएंगे या उन्हें ताकत का इस्तेमाल कर बाहर निकालेंगे?”

युद्ध शुरू होने से पहले भी मोरक्को में इसराइल से संबंधों को सामान्य करने के विरोध में प्रदर्शन हुए थे. तब एक व्यक्ति को रिश्तों के सामान्यीकरण का विरोध करने पर पांच साल की सज़ा भी सुनाई गई थी.संसद के बाहर हुए प्रदर्शनों को भी बलपूर्वक ख़त्म कर दिया गया था.लेकिन इसराइल के ग़ज़ा पर हमले के बाद अब जिस तरह से मोरक्को में प्रदर्शन हो रहे हैं, उससे निपटने के लिए सुरक्षाबल तैयार खड़े नज़र आते हैं.

समाचार एजेंसी एपी से मुसैफ कहते हैं- रिश्तों को सामान्य करना सरकार का काम है, आम लोगों का नहीं. इन प्रदर्शनों ने सरकार और ख़ासकर किंग के प्रोजेक्ट को निशाना बनाया गया है.

क्या इन प्रदर्शनों से मोरक्को अपना रुख़ बदलेगा?

जानकारों का कहना है कि जो प्रदर्शन मोरक्को में हो रहे हैं, उससे इसराइल संग रिश्तों को सामान्य करने की कोशिशें पटरी से नहीं उतरेंगी.मोरक्को की राजधानी रबात की मोहम्मद वी यूनिवर्सिटी में अंतरराष्ट्रीय रिश्तों के प्रोफ़ेसर ज़कारिया अबुदहाब ने कहा- प्रदर्शनों से सामान्यीकरण की प्रक्रिया नहीं बदलेगी. वो कहते हैं- मोरक्को की सरकार जानती है कि जब लोगों का ग़ुस्सा बढ़ता है और एक मुकाम पर पहुंचते हुए अन्याय की बात होती है तो उसे आम लोगों की बात सुननी होगी.

अरब क्रांति के दौरान मिस्र, सीरिया, ट्यूनीशिया और यमन में लोकतंत्र के समर्थन में व्यापाक स्तर पर प्रदर्शन हुए थे. बहरीन में साल 2011 के बाद से विरोध प्रदर्शनों पर प्रतिबंध था. लेकिन बीते कुछ दिनों में प्रदर्शनों की फिर से अनुमति दे दी गई है. बहरीन की अल वफ़्क पार्टी के लंदन में रह रहे नेता जावेद फैरूज़ ने कहा- अब लोग सड़कों पर उतरने और हिस्सा लेने का जोखिम उठा रहे हैं.

वो कहते हैं- सरकार लोगों के ग़ुस्से का इज़हार हो जाए, इसके लिए प्रदर्शनों की अनुमति दे रही है. जब से इसराइल ने हमला शुरू किया है, अरब देशों के नेताओं ने हिंसा का विरोध किया है और शांति की अपील की है. संयुक्त अरब अमीरात के विदेश मंत्रालय ने सात अक्तूबर को हमास के किए हमलों को गंभीर बताया था. तब यूएई के वित्त मंत्री ने मीडिया से कहा था कि देश को व्यापार और राजनीति से मिक्स नहीं करना चाहिए.

वहीं मोरक्को के विदेश मंत्रालय ने संघर्ष शुरू होने के बाद कहा था कि नागरिकों पर हुए हमलों की निंदा करते हैं. मगर बाद में मोरक्को ने इसराइल के किए हमलों की निंदा की थी. बीते हफ़्ते मोरक्को ने ग़ज़ा के लिए दवाएं, खाना, पानी भेजने की बात कही थी.

अरब देशों में इसराइल के ख़िलाफ़ प्रदर्शन

फ़लस्तीन के मुद्दे पर अरब देशों में पहले भी समर्थन देखने को मिलता रहा है. दिसंबर 2022 में क़तर में फ़ीफ़ा वर्ल्डकप हुआ था. तब फ़ीफ़ा ने घोषणा की थी कि 2022 के वर्ल्ड कप के दौरान इसराइल के तेल अवीव से दोहा के लिए सीधे फ्लाइट आएगी. यह व्यवस्था इसराइली और फ़लस्तीनी प्रशंसकों के लिए की गई थी. क़तर और इसराइल के बीच कोई राजनयिक संबंध नहीं है और दोनों देशों के बीच कभी भी हवाई सेवा नहीं रही थी. इसराइल इस वर्ल्ड कप के दौरान दोहा और तेल अवीव के बीच उड़ान शुरू होने को लेकर काफ़ी उत्साहित था.

तब इसराइल के विदेश मंत्रालय ने इसे ऐतिहासिक बताया था. कई लोगों ने इसे इस रूप में भी देखा कि अरब वर्ल्ड इसराइल को स्वीकार करने की ओर बढ़ रहा है. लेकिन इसराइल के इस उत्साह को अरब के फ़ुटबॉल प्रेमियों ने बहुत लंबे समय तक ज़िंदा नहीं रहने दिया. टूर्नामेंट कवर करने आए इसराइली मीडिया का अरब देशों के फ़ुटबॉल प्रेमियों ने बहिष्कार करना शुरू कर दिया.

फ़लस्तीनियों के लिए समर्थन

फ़ीफ़ा वर्ल्डकप के दौरान क़तर की सार्वजनिक जगहों पर फ़लस्तीनियों के समर्थन में पोस्टर लगाए गए थे. स्टेडियम के बाहर इसराइली पत्रकारों के सामने फ़लस्तीन के समर्थन में नारे लगाए गए और फ़लस्तीनी प्रशासन के झंडे भी लहराए गए. तब इराक़ और अरब वर्ल्ड को कवर करने वाले अमवाज मीडिया ने रिपोर्ट में लिखा था, ”फ़ीफ़ा वर्ल्ड कप में फ़लस्तीनियों के समर्थन में जो सेंटिमेंट दिखा, वह पर्यवेक्षकों के लिए हैरान करने वाला है. यह इसराइल और अमेरिका के लिए भी हैरान करने वाला रहा.”

कहा जा रहा था कि अरब में इसराइल की स्वीकार्यता बढ़ रही है, लेकिन फ़ीफ़ा वर्ल्ड कप में अरब देशों के आम लोगों के बीच बिल्कुल उलट स्थिति थी. ग़ज़ा पर इसराइल के किए हमलों के बीच अरब सरकारें भले ही कुछ संभलकर प्रतिक्रियाएं दे रही हों मगर आम लोगों का गुस्सा खुलकर सामने आ रहा है.

पूरे मामले पर अमवाज मीडिया से यूनिवर्सिटी ऑफ़ डेनवर में सेंटर फ़ॉर मिडिल ईस्ट स्टडीज़ के निदेशक डॉक्टर नादेर हाशमी ने कहा है, ”वर्ल्ड कप में अरब के लोगों और खिलाड़ियों के बीच फ़लस्तीनियों के प्रति सहानुभूति बताती है कि अरब की सरकारों और आम लोगों के बीच इसराइल को लेकर अलग-अलग राय है.

अब्राहम एकॉर्ड्स आम लोगों के बीच बुरी तरह से अलोकप्रिय हो रहा है. अरब देशों में जैसे-जैसे खुलापन बढ़ेगा और लोकतंत्र आएगा वैसे-वैसे अब्राहम अकॉर्ड्स और कमज़ोर पड़ेगा. अरब के आम लोग चाहते हैं कि फ़लस्तीनियों को बराबर का हक़ मिले.”

मध्य-पूर्व के मीडिया में कहा जा रहा है कि क़तर में वर्ल्ड कप का आयोजन अरब के प्रशंसकों के लिए मौक़ा था कि वे इसराइल से रिश्ते सामान्य करने के मामले में खुलकर बोलें. फ़लस्तीनियों की तरह अरब के बाक़ी देशों के लोगों को इसराइलियों से आमना-सामना नहीं होता है. ऐसे में वर्ल्ड कप उनके लिए एक मौक़ा था कि इसराइलियों के मुँह पर अपना विरोध दर्ज कराएं. अरब के आम लोगों के मन में यह बात भी थी कि अगर वे ऐसा करेंगे तो ग्लोबल मीडिया के ज़रिए पूरी दुनिया को अपना विरोध बता पाएंगे.

इसराइलियों से नफ़रत?

क़तर में अरब प्रशंसकों के बीच इसराइल का बहिष्कार काफ़ी विवादों में रहा. पिछले साल इसराइल के पत्रकार राज़ शेचिंक ने 26 नवंबर को ट्विटर पर एक वीडियो शेयर किया था. इस वीडियो में अरब के लोग फ़लस्तीनी झंडा लिए हुए हैं और इसराइली पत्रकार का विरोध कर रहे हैं. इसमें महिला और पुरुष दोनों हैं. लोग कह रहे हैं कि इसराइल कहीं नहीं है, सारा इलाक़ा फ़लस्तीनी है.

इस वीडियो में एक नौजवान पत्रकार से पूछ रहा है, ”आप कहाँ से हैं? पत्रकार ने कहा कि इसराइल से. इतना सुनते ही वह नौजवान फ़लस्तीनी झंडा लिए आगे बढ़ जाता है और कहता है कि मैं इसराइल को देश नहीं मानता हूँ. केवल फ़लस्तीन है. इसी दौरान बुर्के़ में दो लड़कियां आती हैं और वे भी वही बात दोहराती हैं. फिर मोरक्को के प्रशंसक आते हैं और वे भी इसराइली पत्रकार से बात करने से इनकार कर देते हैं.

मोरक्को के प्रशंसक से इसराइली पत्रकार कहता है कि आपके देश ने तो इसराइल के साथ शांति समझौते पर हस्ताक्षर किया है. इस पर मोरक्को के प्रशंसक कहते हैं, कोई इसराइल नहीं है. केवल फ़लस्तीन है.”इसराइली पत्रकार इसी दौरान एक इसराइली नागरिक से बात करता है तभी पीछे से आकर लोग फ़लस्तीन का नारा लगाने लगते हैं. नारे में लोग कहते हैं- कोई इसराइल नहीं है. केवल फ़लस्तीन है.

इसराइल के पत्रकार राज़ शेचिंक ने ट्विटर पर इस वीडियो को पोस्ट करते हुए लिखा है, ”मैं कुछ लिखना नहीं चाहता हूँ. आप ख़ुद ही सुन लीजिए. हम हमेशा एक पत्रकार के रूप में रहते हैं. यह एक खेल का महाआयोजन है, लेकिन यहाँ जो कुछ भी चल रहा है, उसे मैं शेयर नहीं कर सकता. हमलोगों को लेकर यहाँ पर्याप्त नफ़रत है.”

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