जहाँ कमरो में बंद हो जाती है जिंदगियां, हो लोग उसे बड़ा शहर बड़ा शहर कहते हैं – बलवंत सिंह खन्ना

 

माँ ने साँझ का चूल्हा जलाया ही था कि घर के छान्ही ( खपरैल) के छत से निकलते हुए धुएं को देख कर पड़ोस की चाची, दादी, भाभी लोगो का आना शुरू हो गया। आना शुरू हो गया क्योंकि उस समय गावों में खाना बनाने के लिए घरेलु ईंधन गोबर का कंडा और लकड़ी का उपयोग किया जाता था और जब किसी एक के घर के चूल्हे में पहले आग जलाई जाती तो उसमें से उठने वाले धुएं को देखकर पड़ोस के बाकी लोग भी आग लेने आया करते थे। इसके पीछे गरीबी या अमीरी का कोई बहुत बड़ा तर्क नहीं हुआ करता तब दरअसल गाँव खुद में एक संयुक्त परिवार हुआ करता था। हर कोई हर किसी को जानता समझता था। हर किसी का हर कोई नाते रिश्तेदार हुआ करते थे भले ही समाज कोई हो, जाति धर्म कोई भी हो लेकिन आपसी भाई चारा एक संयुक्त परिवार की तरह हुआ करता था। पड़ोस से आग लेने से लेकर खान-पान के अलावा हर छोटी सी बड़ी वस्तुओ का लेन देन हुआ करता था। इसे एक हद तक वस्तु विनिमय भी कह सकते हैं। गांव में किसी के द्वारा कराए गए कार्यों के बदले राशि देने का चलन बहुत कम ही होता था बल्कि किसी से कराए गए कार्यों के बदले उसके यहा का कोई कार्य कर दिया जाता था या कोई वस्तु दे दिया जाता था।

जब गाँव में किसी के घर बच्चा जन्म ले तब छुट्टी का कार्यक्रम हो, जब गाँव में किसी के घर वैवाहिक कार्यकम हो तब समाज के सभी परिवार और गाँव के व्यक्ति आपस में मिलकर सभी भौतिक व्यवस्थाएं सम्भल लेते थे। भौतिक व्यवस्थाओं के अलावा अगर आर्थिक सहायता की भी जरुरत हो तो अपनी क्षमता के अनुरूप आर्थिक सहायता भी करते थे। पुराने जमाने से लेकर आज तक ऐसी परंपरा है कि कई गाँव में जब किसी की मृत्यु हो जाती है तब उस दिन दिवंगत व्यक्ति के घर में चूल्हा नहीं जलाया जाता है। उस दिन पूरे परिवार के साथ ही सभी मेहमानों के भोजन की व्यवस्था गाँव में समाज के बाकी परिवार वाले सम्भाल लेते हैं, इसके अलावा चाहे दशगात्र का चलन हो या तेरहवीं का कार्यक्रम जब तक सम्पन्न न हो जाये तब तक दिवंगत परिवार के सदस्य चूल्हा नहीं सम्भालते हैं। बल्कि समाज के बाकी परिवार वाले सब कार्यों का निष्पादन पूरी निष्ठा के साथ करते हैं यह व्यस्था आज भी कायम है और आपसी सद्भाव और एक दूसरे के सुख-दुःख में सम्मिलित होने की परिपाटी के नजरिए से सही भी है। गाँव की संस्कृति कहें या रिवाज कहें, संस्कार कहें अथवा अपनापन कहे उसका कोई जवाब नहीं है। इसके विपरीत जैसे-जैसे वैश्वीकरण का फैलाव प्रारम्भ हुआ तब से धीरे धीरे ग्राणीण संस्कृति रहन सहन में काफी बदलाव आये हैं तथा आज गाँव भी शहर का रूप ले रहा है। शहर जहाँ कमरों के अंदर जिंदगियां बंद हो जाती है अर्थात एक ही मोहल्ले कहिये या गली कहिये एक छोर में अगर कोई जवान व्यक्ति की आकस्मिक मृत्यु हो जाये तो इसका दुःख उस व्यक्ति के घर से लगे हुए दो चार घर को छोड़ दिया जाए तो बाकी लोगों की कोई संवेदना नहीं होती है। उसी गली के दूसरे छोर में अगर वैवाहिक कार्यक्रम

प्रारम्भ होने वाला हो तो मोहल्ले में ही हुई गमी की वजह से वह रुकेगा (कुछ जगहों पर) नहीं। कई बार ऐसी भी स्थिति आ जाती है की शहर के किसी गली में एक छोर से अर्थी उठ रही हो और उसी गली को दूसरी छोर से बारात निकल रही होती है। कई बार ऐसा होता है कि एक ही अपार्टमेंट में रहने वाले परिवार अपने बगल वाले फ्लैट के दुःख सुख से अनजान रहते हैं। गाँव में जहां पहले केवल नमक खरीदने के लिए कस्बो या शहरों तक जाना होता था क्योंकि तब घरेलु आवश्यकता की सभी चीजे किसान खुद अपनी खेती किसानी से उपजा लेते थे। लेकिन जैसे-जैसे शिक्षा का प्रसार हुआ वैसे ही वर्तमान युवाओं में कृषि के प्रति अरुचि आई है और वह अब रोजगार के लिए शहरों का रुख करने लगे हैं। शहर या यूं कह सकते हैं कि कांक्रीट के जंगल में आज जिंदगी मानो एक बंद कमरे में सिमट कर रह गई हो, जहां भीड़ तो इतनी मिलेगी कि सड़कों पर पैदल चलना भी दुस्वार हो जाता है लेकिन इंसानों की भीड़ में भी हर कोई अंजान एवं अकेला सा ही रहता है। जिस प्रकार कमरे में कई सामगियां रखी हुई हैं लेकिन वह हमसे बात नहीं कर सकते अपनी भावनाओं को जाहिर नहीं कर सकते हैं उसी प्रकार शहर में भीड़ तो है लेकिन जिन्दगियां एक कमरे में रखी अन्य सामग्रियों की तरह हो गई हैं। यही वजह है कि एक बार फिर वैसा दौर शुरू हो गया है जब महानगरों में ऊंची तनख्वाह प्राप्त करने वाले प्रोफेशनल लोगों ने कुछ ही समय में शहरी भीड़ को अलविदा कहते हुए गांवों का रूख करना शुरू कर दिया है और वे छोटे कस्बों अथवा अपने गांव में ही किसी ऐसे व्यवसाय की शुरूआत करने लगे हैं जिससे वे गांव में अपने लोगों के बीच रहते हुए कुछ हद तक बेरोजगारी दूर करने में भी योगदान दे रहे हैं। शहरों का अपना बात को समझने की आवश्यकता है।

अलग महत्व है लेकिन इससे गांव का लेखक महत्व समाप्त हो जाता है, ऐसा नहीं है इस बलवंत सिंह खन्ना

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